इक्कीसवीं सदी के 'जानवर'- Bengaluru Mass Molestation Case




इक्कीसवीं सदी के 'जानवर'- Bengaluru Mass Molestation Case

अभी हाल ही में आयी फिल्म दंगल का एक डायलॉग बड़ा ही फेमस हुआ है कि "म्हारी छोरियाँ छोरों से कम हैं के" लोग बड़े ही गर्व से इस बात को बोलते नज़र भी आये. अच्छा लगा कि चलो किसी न किसी बहाने लड़कियों के प्रति ये भावना उन्हें सारे समाज में इज्जत दिलाएगी. लेकिन हमारी ये गलत फहमी ज्यादा देर की मेहमान नहीं थी क्योंकि बेंगलुरु शहर में ऐसी घटना हई कि जिसकी कल्पना मात्र से ही रूह कांप जाती है, जी हाँ 31 दिसंबर की रात को नए साल का जश्न मना रही लड़कियों से सामूहिक छेड़छाड़ की शर्मनाक घटना ने एक बार फिर से हमें झकझोर के रख दिया है. उस रात अचानक से भीड़ वहसी हो जाती है और वँहा मौजूद औरतों के साथ जोर जबरदस्ती करने लगती है, औरतें चिल्ला रही हैं, रो रही हैं और इधर उधर भाग रही हैं मदत के लिए. आपको बताते चलें कि उस वक़्त वहां पुलिस कि अच्छी खासी मोजुदगी थी फिर भी बिना खौफ ये जाहिल हरकतें हुयी वो भी एक दो लोगों द्वारा नहीं बल्कि पूरी भीड़ के द्वारा. औरतें स्तब्ध हैं कि ये अचानक क्या हो गया. जश्न का माहौल खटाई में गया और चारो तरफ असुरक्षा कि अफरातफरी मची थी. इस घटना के बाद से पूरा देश आक्रोश में है जैसा कि हर बार होता है, लेकिन हमारे नेता जी लोग यहाँ भी अपनी ओछी मानसिकता का परिचय देते हुए गुनहगारों को पकड़ने के बजाय पीड़ितों के जख्मों पर नमक छिडकने जैसी बयानबाजी कर रहे हैं, तो वहीँ  कुछ लोग  संस्कृति के ठेकेदार बन उलटे महिलाओं को ही कठघरे में खड़े कर रहे हैं. और तथाकथित सभ्य कहेजाने वाला समाज चुप है, इन्तेजार कर रहा है कि फिर कोई 'दामिनी' वाली घटना घटे और मोमबती लेकर सड़कों पर निकल कर अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर लिया जाये. 

बेंगलुरु में जो घटना हुयी है उसमें नया क्या है, ये तो हमारे समाज का असली चेहरा है. गली -चौराहे जहाँ भी मौका मिला किसी न किसी लड़की के साथ तो ये घटनाएं होती ही रहती है. दुपट्टा खींचना, पीछे से हाँथ मरना, गन्दी बात बोलना तो जैसे आम बात है. और हम ये सोच कर संतोष कर लेते हैं कि ये जाहिल गंवार सड़को पर घूमने वाले लोग हैं. लेकिन बेंगलुरु की घटना ने हमारी आँखों के सामने से पड़ा पर्दा हटा दिया कि सभ्य समाज जिसमें कि पढ़े- लिखे लोग होंगे वहां ऐसा कुछ नहीं होगा. जैसा कि बेंगलुरु आईटी के हब के रूप में जाना जाता है वहां जब ये घटना घट रही होगी तो सारे अनपढ़ या काम पढ़े -लिखे लोग ही तो नहीं होंगे न, उन दरिंदों में वो आईआईटियन भी तो होंगे जिन्हें अपने योग्य होने का गुमान होगा जो बड़ी -बड़ी कंपनियों में काम करते होंगे तथा काफी बड़े और सभ्य घरों से रिस्ते रखते होंगे. इसलिए अब उन सभ्य समाज के लोगों को भी आस्वस्त रहने की जरुरत नहीं है कि उनके घरों की औरतें सुरक्षित हैं. अब ये गन्दगी सड़कों से उठाकर पढ़े -लिखे लोगों के सभ्य समाज में भी पहुँच गया है.
इक्कीसवीं सदी के 'जानवर'- Bengaluru Mass Molestation Case

कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि हमारे देश में औरतें कहीं भी सुरक्षित नहीं है. और इसके जिम्मेदार सिर्फ हम हैं, सिर्फ पश्चिमी सभ्यता, लड़कियों के कम कपड़े, देर रात को घर से बाहर रहने जैसे घटिया तर्कों को देकर हम बच नहीं सकते. क्योंकि ऐसी हरकतें करने वाले किसी अलग ग्रह या दूसरे देश से नहीं आते, ये लोग हमारे और आपके घरों में ही पैदा होते हैं और इसी समाज में पलते-बढ़ते हैं. तो फिर इनके बनने -बिगड़ने कि जिम्मेदारी किसी और की कैसे हो सकती है. पैदा होते ही हम लड़कियों को तो जरूर ही सिखाते हैं कि ऐसे रहो -वैसे रहो यहाँ  मत जाओ ये मत पहनो, और सिखाना भी चाहिए लेकिन वहीँ लड़कों को संस्कार- तहजीब औरतों का सम्मान और सुरक्षा की सिख देने कि जरुरत नहीं समझते. हम अपने लड़कों को नहीं सिखाते कि रात में सड़क पर अकेली लड़की दिखे तो उसकी मदत करनी चाहिए, अगर कोई शोहदा उसे छेड़ रहा है तो उसके खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए. बिना लड़कों को सिखाये, जिम्मेदार बनाये हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि जिस समाज में लड़का- लड़की  दोनों ही हैं वहां लडकिया सुरक्षित रह सकती हैं. बेंगलुरु की घटना के बाद कितने माँ-बाप अपने बेटों से पूछे होंगे कि तुमने तो ऐसा नहीं किया न. क्या आपको अपने बेटों से नहीं पूछना चाहिए कि वो लोग कौन थे, और जब ये घटना हो रही थी तो तुम क्या कर रहे थे.
इस घटना के बाद फिल्म स्टार आमिर खान ने जोर देकर कहा है कि समय आ गया है कि कानून व्यवस्था ‘मजबूत बनायी जाए और वह तेजी से काम करे’ ताकि दोषी को दंडित कर  एक मजबूत संदेश दिया जा सके. आमिर का कहना बिलकुल सही है ऐसी जलील हरकत करने वालों को किसी भी कीमत पर सजा मिलनी ही चाहिए. लेकिन सिर्फ सजा ही इसका उपाय नहीं है, अगर हम अभी भी नहीं सम्भले और लड़कियों से ज्यादा अपने लड़कों पर ध्यान नहीं दिए तो फिर एक सभ्य समाज की कल्पना करना बेईमानी होगा और  फिर 'दंगल' और 'पिंक' जैसी फिल्मों के सन्देश सिनेमा घरों तक ही सिमित रह जायेंगे.

-विंध्यवासिनी सिंह


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