सड़कों पर गरीब -मजदूरों का मरना, 21वीं सदी की सबसे बड़ी त्रासदी



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कोरोना वायरस नाम यूं तो विश्व के प्रत्येक देश को परेशान किया है, लेकिन इस बीच जिस प्रकार से सड़कों पर भूख के कारण, एक्सीडेंट के कारण गरीब मजदूर मर रहे हैं उसे बड़ी त्रासदी कुछ और नहीं हो सकती है। 

कहने को देशभर में दान वीरों की कमी नहीं है और सरकार भी हमारी कई लाख करोड़ का पैकेज देने में सक्षम है,लेकिन समझ में नहीं आता कि जब गरीब और मजदूरों की जान बचाने की बात आती है तो तमाम धनकुबेर हो, तमाम संस्थाओं और विभिन्न सरकारों की क्षमता आखिरी कहां लुप्त हो जाती है?


देश में लॉक डाउन को लगे 2 महीना बीतने को है, लेकिन आज भी हम एक सटीक व्यवस्था नहीं दे पाए है।  जिसके कारण गरीब मजदूरों की ना केवल मृत्यु हो रही है बल्कि हमारी व्यवस्था की भी मृत्यु हो रही है,  जिसने हमारी महत्वाकांक्षाओं की उड़ान को ग्रहण लगाने का कार्य किया है।  ठीक बात है की कोरोना वायरस फैलने की आशंका है लेकिन क्या यह सच नहीं है कि इस ओर हमारा ध्यान उतनी सजगता से नहीं है जितनी तत्परता और क्षमता से हमारा ध्यान होना चाहि। 

इधर दिल्ली हाई कोर्ट का भी आदेश आया की मजदूरों को सड़क पर नहीं निकलना चाहिए तमाम सरकारें भी इस बात का आश्वासन दे रही है कि गरीब मजदूरों को घर से सड़क पर नहीं निकलना चाहिए और उनके रहने खाने का उचित प्रबंध सरकारों द्वारा किया जाएगा, पर मुश्किल यह है कि बावजूद इन सबके कोई ठोस कार्रवाई और समाधान प्रस्तुत क्यों नहीं हो रहा है। 

लॉक डाउन की वजह से औरैया जिले में हुई दुर्घटना में 24  से अधिक मजदूरों के मरने की खबर आ रही है तो उससे कुछ दिनों पहले ही मध्यप्रदेश में पटरी पर सो रहे 16 मजदूरों के ऊपर मालगाड़ी चढ़ जाती है, ऐसी ही और कई घटनाएं इस 2 महीने  के लॉक डाउन के दौरान सामने आयी हैं जहाँ मजदूर अपने गांव लौटने की कोशिश में मारे गए हैं। किसी मजदूर की चलने और थकने  के कारण मौत हो जाती है, तो किसी का हार्टफेल हो जाता है। कितना अजीब है ना 130 करोड़ की आबादी वाले देश जिसकी कोरोना को लेकर तैयारियों की पूरी दुनिया प्रशंसा करती है और मिशाल पेश किये जाते हैं, वहां रोज कहीं ना कहीं कोई मजदूर अव्यवस्था के कारण रोड पर मर रहा है।  जहाँ CAA और NRC के नाम पर महीनों आंदोलन चलते हैं, और इन आंदोलनों की व्यवस्था देखकर बड़े -बड़े  मैनेजमेंट गुरु भी चक्कर खा जाते है। उस देश में कोई गरीब भूखा ना रहे ऐसी कोई व्यवस्था क्यों नहीं बन पायी? 

क्या करें मजदूरों को व्यवस्था के नाम पर हमेशा ही मुर्ख बनाया गया है। इन्दिरा गाँधी के शासन काल में  मजदूरों की भलाई के बारे में खूब सोचा गया और इस सोच का परिणाम यह निकला कि केंद्र और राज्यों में लगभग 200 कानूनों का निर्माण या संशोधन किया गया। हालाँकि ये कानून मजदूरों के लिए फायदेमंद कम और उनके पैरों की जंजीर ज्यादा बने। ये कानून मजदूर के हितों की रक्षा करने वाले लगते जरूर हैं मगर इनकी वजह से 'संगठित क्षेत्र' में महदूरों के लिए रोजगार की संभावना ही समाप्त हो गयी । लेबर कानूनों की सख्ती के कारण उद्मम छोटे से बड़े नहीं हो पाते और  90 प्रतिशत रोजगार की सम्भावना 'असंगठित क्षेत्र' में रह गयी है। 

वहीं देश भर में मजदूरों के आंकड़ों की बात करें तो गरीब और मजदूर तथा किसानों की हितैसी कही जाने वाली मोदी सरकार के पास यह आंकड़ा तक नहीं है कि मौजूदा समय में देश में कितने मजदूर हैं । हालाँकि इसी साल 16 मार्च को श्रम राज्यमंत्री संतोष सिंह गंगवार ने लोकसभा में एक आंकड़ा पेश करते हुए बताया था कि 2011  की जनगड़ना में   48.2 करोड़ मजदूर देश भर में थे, जिसके आधार पर 2020 तक 50 करोड़ मजदूरों की संख्या हो गयी होगी। अब जब देश की आधी आबादी मजदूर वर्ग है तो मजदूरों की इस तरह अनदेखी कैसे हो सकती है ? 

हालाँकि अभी भी बहुत देर नहीं हुई है और प्रत्येक राज्य सरकार को चाहिए की वो अपने यहाँ मजदूरों के लिए समुचित रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए। जिसके तहत अपने यहाँ बड़े पैमाने पर निवेश का मार्ग बनायें जिससे उद्योग-धंधे शुरू हों और मजदूर वर्ग को रोजगार मिले। जब लोगों को अपने ही गृह राज्य में काम मिलेगा तो उसे कहीं और जाकर परेशान नहीं होना पड़ेगा। 

-विंध्यवासिनी सिंह 




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