'महाशक्ति' की तरह व्यवहार करे भारत

देहात में कहावत होती है कि 'घर की मुर्गी' की कीमत नहीं होती .अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भी कुछ कुछ इसकी झलक मिलती है खासकर पडोसी आप को हल्के में लेने लगते हैं जब आप उन्हें ज्यादा मुंह लगाते हो .
जनता के स्तर पर तो हमेशा दो राष्ट्रों के बीच में जुड़ाव बने रहना चाहिए लेकिन नेपाल में अगर केपी ओली जैसा राजनीतिक नेतृत्व भर जाए और हर कीमत पर वहां भारत जैसे राष्ट्र के साथ सदियों से चले आ रहे संबंधों को नुकसान पहुंचाने की आदत पड़ती जाए तो फिर सजग होने की जरूरत आन पढ़ती है .


 Nepal-India relations 

कई देशों की अपनी जमीनी हकीकत अलग होती है तो वहां का राजनीतिक नेतृत्व ही अलग ढंग से सोचता और नीति अपनाता है, किंतु भारत की इतनी ताकत तो होनी ही चाहिए कि नेपाल जैसे देश में कोई एक राजनेता संबंधों को नुकसान न पहुंचा सके.

केवल नेपाल ही क्यों पाकिस्तान जैसा राष्ट्र पहले बात -बात पर भारत को धमकियां  देता रहता था, किंतु जब से भारत ने उसे मुंह लगाना बंद किया है तब से वह बातचीत के लिए गिड़गिड़ाता नजर आता है. सच कहा जाए तो भारत को महाशक्ति की तरह ही व्यवहार करना चाहिए तभी वहां अपने पड़ोसियों के साथ बेहतर संबंध निर्मित कर सकेगा और उसका प्रभाव चारों  और दृष्टिगत भी होगा.

महाशक्ति की तरह व्यवहार करने का यह मतलब कदापि नहीं है कि भारत को अपने पड़ोसियों पर धाक जमाना चाहिए बल्कि तमाम मुद्दों को पारदर्शी ढंग से डील किए जाने की जरूरत है. इसका सबसे बेहतर उदाहरण है जब मोदी सरकार ने बांग्लादेश के साथ सीमा विवाद को भूमि के आदान-प्रदान से सुलझा लिया था. राष्ट्र निर्माण कोई 1 साल या एक सरकार के समय में संभव नहीं होता है. इसलिए दो राष्ट्रों के बीच विवाद उत्पन्न होते रहते हैं लेकिन स्थाई और मजबूत सरकारों का यह दायित्व बनता है कि पड़ोसियों के साथ उनको बेहद सजगता रखनी चाहिए और छोटे विवादों को लेकर पारदर्शी रुख अपनाना चाहिए, जिससे पड़ोसियों का न केवल भारत जैसी महाशक्ति पर विश्वास बढ़ता बल्कि भारत के विरोध में एक कदम बढ़ाने से पहले उनको सौ बार सोचना भी पड़ता .

महा शक्तियों का यह भी कर्तव्य है कि वह अपने पड़ोसी देशों की मदद करने की हिम्मत और क्षमता उत्पन्न करें. अगर आज चीन का प्रभाव हमारे परम मित्र नेपाल और बांग्लादेश में बढ़ा है तो इसमें उसकी आर्थिक ताकत सबसे महत्वपूर्ण है. तुलसीदास ने रामचरितमानस में कहा भी है कि 'समरथ को नहिं दोष गुसाईं' भारत ऐसी ताकत क्यों नहीं हासिल कर पाया कि उसके पड़ोसी देश उसके प्रभाव में रहे. इस पर भी विचार किए जाने की आवश्यकता है! जो बीत गया सो बीत गया लेकिन क्या आज भी हम ऐसी पॉलिसी बना रहे हैं जिससे आने वाले सालों में, आने वाले दशकों में हम इतने सक्षम हो सके कि हमें मित्र मानने वाले राष्ट्रों और पड़ोसियों के आर्थिक रूप से सम्बल भी बन सकें?

निश्चित रूप से कई किंतु और परंतु है लेकिन राजनीति पीछे मुड़ मुड़कर देखते रहने का गेम नहीं है. बल्कि एक बड़ी ताकत बनकर ही इन सारी समस्याओं पर विजय पाई जा सकती है जो हमें अनसुलझी लगती हैं.

-विंध्यवासिनी सिंह 

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